Sunday 19 July 2015

काशी की हिन्दी पत्रकारिता की विकास यात्रा


भारतीय पत्रकारिता के साथ-साथ हिन्दी पत्रकारिता की भी उद्भव भूमि कलकत्ता ही रही है, किन्तु हिन्दी पत्रकारिता को सजाने-संवारने और सम्वर्द्धन का सम्पूर्ण श्रेय काशी और प्रयाग को जाता है। हिन्दी समाचार पत्रों पर लिखे गये अब तक के इतिहास से यह स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है कि हिन्दी पत्रों के प्रकाशन में काशी का अपूर्व योगदान रहा है। हिन्दी पत्रकारिता के विस्तृत फलक पर काशी की हिन्दी पत्रकारिता उद्भव से लेकर विकास की गति तक एक व्यापक भूखण्ड की भांति चित्रांकित रही है।
बनारस अखबार
उत्तर प्रदेश से प्रकाशित पत्र में ‘बनारस अखबार’ पहला हिन्दी पत्र (साप्ताहिक) था, जो जनवरी 1845 ई॰ में काशी से प्रकाशित हुआ। पहला इस अर्थ में कि यह हिन्दी प्रदेश से प्रकाशित होने वाला प्रथम पत्र था। इसे राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ ने प्रकाशित कराया था। इसके सम्पादक थे, श्री गोविन्द रघुनाथ थत्ते। इस पत्र का सिद्धान्त सूचक पद्य यह है-
‘सुबनारस अखबार यह शिवप्रसाद आधार।
सुधि विवेक जन निपुन को चितहित बारंबार।।
गिरिजापति नगरी जहां गंग अमर जलधार।
नेत शुभाशुभ मुकुर को लखों विचार विचार।।
पत्र के मोटो से ऐसा लगता है कि ‘बनारस अखबार’ शुद्ध हिन्दी भाषा का पक्षधर है, किन्तु जहां उसमें ‘नेत शुभाशुभ मुकुर’ जैसे हिन्दी वाक्यांशों का प्रयोग हुआ है, वहीं सम्पादकीय स्तम्भ और समसामयिक टिप्पणियों में उर्दू भाषा की खुलकर हिमायत की गयी है। इससे स्पष्ट है कि ‘बनारस अखबार’ भाषा सम्बन्धी विरोधाभास को लेकर उभरा। ‘अखबार लीथो ग्राफ पर नागरी में मुद्रित होता था, यद्यपि भाषा उर्दू थी। सम्पादक सामान्यतया प्रत्येक अंक में कुछ अनुवाद संस्कृत पुस्तकों के नियम आदि पर भी देता था। सन् 1854 ई॰ तक प्रकाशित ‘इस पत्र का मूल्य 12/- प्रति वर्ष था। ‘बनारस अखबार’ के प्रकाशन के पांच वर्ष बाद काशी से ही ‘सुधाकर’ साप्ताहिक का प्रकाशन सन् 1850 ई॰ में तारामोहन मैत्र के सम्पादकत्व में हुआ। यह बंगला और हिन्दी दो भाषाओं में प्रकाशित होता था। इसका नाम प्रसिद्ध ज्योतिषी सुधाकर द्विवेदी के नाम पर पड़ा था। ‘सुधाकर अखबार’ नागरी लिपि में लीथो पर छपता था, लेकिन उर्दू के अधिकतर सम्मिलित होने पर भी इसकी भाषा अपेक्षाकृत हिन्दी की थी। लेख के साथ सिफारिशी पत्र और इसमें साधारणतया भावरंजक कुछ रूचिकर विषय भी प्रकाशित होते थे। यह सुधाकर प्रेस से रत्नेश्वर तिवारी द्वारा मुद्रित होता था और इसके प्रसार की पचास कापी हिन्दुओं द्वारा 22 योरोपियनों और दो मुसलमानों द्वारा ली जाती थी। इसमें घोषित 1/- रुपये प्रतिमाह की दर से इसकी आय 74/- रुपये और मासिक व्यय 50/-रुपये का होता था। इसकी भाषा नीति के सम्बन्ध में डा॰ वैदिक लिखते हैं – ‘सुधाकर 1853 से शुद्ध हिन्दी में निकलने लगा। इस पत्र ने राजा शिवप्रसाद की भाषा नीति का डटकर विरोध किया। उसकी अपनी भाषा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी हुआ करती थी। यद्यपि बनारस अखबार काशी की हिन्दी पत्रकारिता में प्रथम समाचार पत्र था, किन्तु भाषा-लिपि के सम्बन्ध में ‘सुधाकर’ का प्रकाशन परिवर्तनशील भावाभिव्यक्ति का प्रतीक है। यह वह समय था, जबकि पत्र ने उर्दू का मोह त्याग कर शुद्ध हिन्दी भाषा अपनाने की पहल की। यही कारण है कि विद्वत परिषद ने यह स्वीकार किया कि सुधाकर हिन्दी भाषी क्षेत्र का प्रथम समाचार पत्र है। इतना स्पष्ट है कि इसी पत्र से काशी की ही नहीं, अपितु समस्त हिन्दी पत्रकारिता में भाषा परिवर्तन की परम्परा प्रारम्भ एवं सुदृढ़ हुई।
भारतेन्दु की हिन्दी पत्रकारिता
सन् 1850 के बाद काशी की हिन्दी पत्रकारिता में लगभग सोलह वर्षों का ठहराव आ गया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के अभ्युदय के साथ ही काशी की हिन्दी पत्रकारिता तीव्र गति से अग्रसर हुई। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव सम्पूर्ण भारतीय पत्रकारिता पर पड़ा। इस काल की पत्रकारिता सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं राजनीतिक नवजागरण की प्रतीक तथा उन्मेषशील, ऊर्जस्वी, भावाविचारों की अग्रदूत प्रमाणित हुई। ‘भारतेन्दु के उदय के पूर्व पत्र-पत्रिकाओं के विकास का प्रथम दौर पूरा हो चुका था। पत्र-पत्रिकाओं का सम्बन्ध सीधे जन जागरण से है। किसी प्रकार के अन्याय या पक्षपात का प्रतिकार करने के लिये जनता जब उठ खड़ी होती है तो उसे अपनी आवाज बुलन्द करने के लिये पत्र-पत्रिकाओं का सहारा लेना पड़ता है। 1968 में भारतेन्दु ने काशी से कवि वचन सुधा का प्रकाशन आरम्भ किया। यहां से हिन्दी पत्रकारिता के विकास का दूसरा उत्थान माना जा सकता है।
भारतेन्दु और उनकी कविवचनसुधा
सन् 1857 की क्रान्ति के बाद उन्नीसवीं शताब्दी के सातवें-आठवें दशक में भारतीय जन जीवन पर आंतक की जो काली छाया मंडरा रही थी, उससे मुक्ति दिलाने के लिये स्वतंत्रता का मंत्र फूंकने का कार्य पत्रकारिता के माध्यम से भारतेन्दु जी ने किया। इस संदर्भ में यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि यदि युगल किशोर शुक्ल हिन्दी पत्रकारिता के जनक हैं तो साहित्य के साथ-साथ हिन्दी पत्रकारिता को परिमार्जित एवं सशक्त मोड़ प्रदान करने का सम्पूर्ण श्रेय भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र जी को है।1867 में तीन स्वतंत्र हिन्दी समाचार पत्र प्रकाशित हुए, ‘वृत्तांत बिलास’ (जम्मू), ‘ज्ञानदीपक’ (सिकन्दराबाद) और ‘कविवचनसुधा’ (बनारस)। तीसरे का सम्पादन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा हुआ। जब उन्होंने इस मासिक पत्रिका को प्रारम्भ किया। यह कहा जा सकता है कि हिन्दी पत्रकारिता का स्थान उनके प्रयत्नशील कदमों से सुदृढ़ हुआ। उनके बाद उच्च साहित्यिक पत्रों की बाढ़ आ गयी, लेकिन उनमें से अधिकांश केवल कुछ ही वर्षों तक चल सके थे, क्योंकि उन्हें जन समर्थन नहीं मिला। डा॰ रामचन्द्र तिवारी का कथन है कि – ‘कविवचनसुधा’ के प्रकाशन से लेकर भारतेन्दु के अस्त होने तक हिन्दी पत्रकारिता के विकास का दूसरा उत्थान पूरा हो जाता है। इस अवधि में हिन्दी भाषा परिमार्जित हुयी। जागरण और सुधार भावना का प्रसार हुआ तथा अनेक वर्षों और धर्मों में विभाजित भारतवासियों ने अपने जाति वर्ग के उत्थान के लिये जातीय और धार्मिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ किया। क्रमशः  पत्र पत्रिकाओं में गम्भीर लेख प्रकाशित होने लगे और कुछ शुद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी हुआ। इनके माध्यम से राष्ट्रीय चेतना भी अधिक प्रसार रूप में सामने आयी। कविवचनसुधा का आरम्भिक प्रकाशन काशी के लाइट प्रेस से हुआ था। सुधा का उद्देश्य उसके मुखपृष्ठ पर छपे सिद्धान्त वाक्य से ही स्पष्ट है-
खल गगन सो सज्जन दुखी मति होहि हरिपद गति रहै।
अपधर्म छूटें स्वत्व निज भारत गहै कर दुख बहै।।
बुध तजहिं मत्सर, नारि नर सम होहिं, जगआनन्द लहै।
तजि ग्राम कविता, सुकविजन की अमृत बानी सब कहै।।
‘सुधा’ का उपरोक्त आदर्श वाक्य तत्कालीन जन जीवन के संक्रमण का पर्याय है। उस समय सम्पूर्ण भारत अंग्रेज शासकों की स्वार्थपरता और पदलोलुपता जैसी भावनाओं का शिकार था। ऐसे समय में भारतेन्दु ने ‘सुधा के माध्यम से स्वतंत्रता का आवाहन करते हुए ‘निज भारत के स्वत्व’ की ओर संकेत कर ‘नर नारि सम होहिं’ की आवाज को बुलन्द किया। इसके अतिरिक्त ‘कविवचनसुधा’ सुकवि जन की अमृत बानी सुदूर प्रान्तों में भी व्याप्त करने की सशक्त माध्यम थी।
इस पत्रिका में प्रचलित भाषा जनसाधारण में सम्पर्क का माध्यम बनी। यही कारण है कि इसकी लोकप्रियता उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। फलतः यह शीघ्र ही मासिक से पाक्षिक तथा बाद में चलकर साप्ताहिक हो गयी। साथ ही इसकी पद्यात्मक विधा जन सामान्य की अभिव्यक्ति को और तीव्र करने की दृष्टि से गद्योन्मुख हुई। भारतेन्दु और उनकी ‘सुधा’ के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर कुछ राष्ट्रद्रोहियों ने सरकारी हाकिमों के कान भर दिये। दिल्लगी की बातों को भी वह लोग निन्दासूचक बताने लगे। ‘मरसिया’ नामक एक लेख उक्त पत्र में छपा था। निकट के लोगों ने छोटे लाट सर विलियम म्योर को समझाया कि यह आपकी खबर ली गयी है और उसकी सरकारी सहायता बंद हो गयी। शिक्षा विभाग के डायरेक्टर किम्पसन ने बिगड़कर एक चिट्ठी लिखी। हरिश्चन्द्र जी ने उत्तर देकर बहुत कुछ समझाया बुझाया, पर जो रंग चढ़ा लिया था, वह उतरा नही। यहां तक कि बाबू हरिश्चन्द्र की चलायी ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ और ‘बालाबोधिनी मासिक पत्रिकाओं की सौ-सौ प्रतियां प्रान्तीय गवर्नमेण्ट लेती थी, वह भी बन्द कर दी गयी। अंग्रेजों के विरूद्ध खुलकर प्रहार करने का परिणाम यह हुआ कि शासक वर्ग धीरे-धीरे सुधा से खिन्न हो गया। जब अंग्रेज हाकिमों ने ज्यादा जवाब तलब किया तो भारतेन्दु बाबू ने आनरेरी मजिस्ट्रेट के पद से त्यागपत्र दे दिया।
अत्यंत व्यस्तता के कारण भारतेन्दु जी ने ‘कविवचनसुधा’ का भार भी चिन्तामणि बालकृष्ण धड़फले को सौंप दिया। किन्तु सन् 1883 में ‘इलवर्ट बिल’ के विरोध में आन्दोलन प्रारम्भ हुआ तो धड़फले जी सरकार के पक्षधर राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द के समर्थक हो गये। इससे खिन्न होकर उपरोक्त पत्र से भारतेन्दु जी ने अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि पत्रिका की लोकप्रियता घटने लगी। भारतेन्दु जी और धड़फले जी के बीच बाद में इतनी कटुता बढ़ गयी थी, भारतेन्दु जी की मृत्यु का शोकोद्गार प्रकट करना तो दूर रहा, शोक समाचार भी उस पत्रिका में प्रकाशित नहीं किये गये थे। इस प्रकार की वैचारिक पृथकता का प्रभाव जनता के ऊपर भी पड़ा, परिणामतः भारतेन्दु जी की मृत्यु के दो तीन महीने बाद ही ‘कविवचनसुधा’ का प्रकाशन बंद हो गया।
हरिश्चन्द्र मैगज़ीन और श्रीहरिश्चन्द्र चन्द्रिका
‘कविवचनसुधा’ की लोकप्रियता देखकर भारतेन्दु बाबू ने 5 सितम्बर सन् 1873 ई॰ को उसे साप्ताहिक कर दिया। इसके सम्पादन मात्र से ही उनको संतोष नहीं हुआ। साहित्य और राजनीति के साथ-साथ उनकी सांस्कृतिक चेतना पत्रकारिता के साथ पूर्णतया संलग्न हो चुकी थी। वे अच्छी तरह जानते थे कि साहित्य देश और समाज का उन्नयन पत्रकारिता के ही माध्यम से सम्भव है। इसी कारण वे आजीवन किसी न किसी सशक्त पत्र का प्रकाशन व सम्पादन करते रहे। साथ ही फिरंगियों की गोली और बारूद के समक्ष पैर जमाकर तत्कालीन साहित्यकारों व पत्रकारों की अगुवाई भी की। उन्होंने 15 अक्टूबर 1873 ई॰ को हरिश्चन्द्र मैगजीन मासिक का प्रकाशन आरम्भ किया। इस पत्रिका में साहित्य, उपन्यास, विज्ञान, राजनीति, धर्म, पुरातत्व, आलोचना, दर्शन, इतिहास, व्यंग्य आदि विषयों पर लेख प्रकाशित होते थे। यह पत्रिका 24 पृष्ठों में मेडिकल हाल प्रेस, बनारस से मुद्रित हुई, जिसका मूल्य 6/- रुपये वार्षिक था। पत्रिका के प्रथमांक का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित दो कविताओं से हुआ है। प्रथम कविता 11 दोहों में निबद्ध है, जिसमें राधा के साथ-साथ श्रीकृष्ण की भी वंदना है। दूसरी कविता 16 कवित्त छंदों में है। इसके बाद सवैया और कवित्त लिखी गयी है। इस प्रकार दोहा, कवित्त और सवैया मिलाकर कुल 56 छंद हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखित ‘धनन्जय विजय’ नामक नाटक ‘मैगज़ीन’ के इसी अंक में प्रकाशित हुआ था। पत्रिका के ऐतिहासिक लेख शोधात्मक हैं, जैसे प्रथमांक में ही प्रकाशित ‘नाग मंगला का दान पत्र’। इसमें कभी-कभी अंग्रेजी में भी लेख छपते थे। संस्कृत श्लोकों का अनुवाद भी अंग्रेजी में प्रकाशित किया जाता था। पत्रिका को अच्छे लेखकों का सानिध्य प्राप्त था। तोताराम कृत ‘कार्तिकेय नाटक’ के अतिरिक्त बहुचर्चित नाटक ‘रेल का विकट खेल’ ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ में प्रकाशित हुआ था। राष्ट्रीय भावनाओं से पूर्ण विभिन्न प्रकार के लेख व कविताएं भारतेन्दु जी की प्रतिभा की परिचायक हैं। यह पत्रिका आठ अंकों तक ही प्रकाशित हो पायी थी कि इसका नाम बदलकर ‘श्रीहरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ कर दिया गया। यह अंक भी मेडिकल हाल प्रेस बनारस से मुद्रित हुआ था।
‘श्रीहरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ का प्रथमांक जून 1874 ई॰ में प्रकाशित किया गया था। इसके अधिकांश अंक कलकत्ता संयत्र, 90 नं॰ ग्रीवाग्रान स्ट्रीट, प्रिन्टर महेन्द्रनाथ सरकार द्वारा मुद्रित है। कुछ अंक न्यू मेडिकल हाल प्रेस बनारस से भी छपे हैं। पत्रिका का वार्षिक मूल्य,  ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ की तरह छः/- रुपये और ‘कवि वचन सुधा’ समेत 10/- रुपये था। ‘चन्द्रिका का उद्देश्य उसके प्रथम अंक के मुख्य पृष्ठ पर छपे सिद्धान्त वाक्य से ही स्पष्ट हो जाता है, जो इस प्रकार है-
कविजन कुमुदगन हिय विकास चकोर रसिकन सुख भरै।
प्रेमिन सुधा सोसीचि भारत भूमि आलस तम हरै।।
उद्दम सुऔषधि पोखि विरहित दाहि खल चोरन दरै।
हरिश्चन्द्र की यह चन्द्रिका परकासि जय मंगल करै।।
‘श्रीहरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ के प्रथमांक के आरम्भ में विष्णु की वंदना की गयी है। सन् 1880 ई॰ में मोहनलाल विष्णुलाल पाण्ड्या के अनुरोध पर भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने ‘श्रीहरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ को ‘मोहन चन्द्रिका में मिला दिया, जिसका संयुक्तांक 1880 में ही प्रकाशित हुआ। 1884 ई॰ तक यह दोनों सम्मिलित रूप में प्रकाशित होती रहीं, किन्तु इसी वर्ष में भारतेन्दु ने इसे ‘नवोदित चन्द्रिका’ नाम से प्रकाशित किया। इसके दो अंक ही प्रकाशित हो पाये थे कि 6 जनवरी 1885 को भारतेन्दु की मृत्यु हो गयी, जिसकी परिणामस्वरूप यह सदा के लिये बंद हो गयी। यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने यदि ‘कविवचन सुधा’ के माध्यम से हिन्दी-पत्रकारिता की जड़ को मजबूत किया तो ‘श्रीहरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ और ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ का प्रकाशन-सम्पादन करके पत्रकारिता के क्षेत्र में सुदृढ़ श्रृंखला का पुरस्करण किया।
भारतेन्दु द्वारा प्रकाशित अन्य पत्र
भारतेन्दु जी ने 1 जून 1874 ई॰ को ‘बालाबोधिनी’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया। यह स्त्री शिक्षा के प्रचारार्थ प्रकाशित की गयी थी। ‘बालाबोधिनी’ से ही काशी ही क्या, संपूर्ण भारत में महिला पत्रिका के प्रकाशन का शुभारंभ हुआ। इसमें 8 से 12 पृष्ठ तक होते थे। यह सरल तथा सुन्दर भाषाशैली से युक्त नारी विचारों की महत्वपूर्ण पत्रिका थी। इसके अतिरिक्त भारतेन्दु बाबू ने ‘भगवद्भक्तितोषिणी’ का भी सम्पादन किया था।
भारतेन्दु युगीन काशी की हिन्दी पत्रकारिता
यद्यपि हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास प्राचीन है तथापि भारतेन्दु द्वारा सम्पादित पत्रों के  प्रकाशनोपरान्त सम्पूर्ण भारत में हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में अत्यंत स्वस्थ परम्परा स्थापित हुई। इस क्षेत्र में काशी का सार्थक सहयोग स्तुत्य है। भारतेन्दु की हिन्दी पत्रकारिता का प्रत्यक्ष प्रभाव यहां के जनमानस पर पड़ा। परिणामतः समाचार पत्रों के प्रति लगाव और तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में रूचि सामाजिक जीवन का एक अंग बन गयी।
सन् 1875 ई॰ में आनन्द लहरी का प्रकाशन श्री धीरज शास्त्री के सम्पादकत्व में विद्योद्यय प्रेस से प्रारम्भ हुआ। 1876 ई॰ में बालेश्वर प्रसाद ने ‘काशी पत्रिका’ का सम्पादन किया। बाद में उनके डिप्टी कलेक्टर हो जाने पर इसका प्रकाशन भार पं॰ लक्ष्मीशंकर मिश्र ने संभाल लिया। इस पत्र में अधिकांशतः स्कूली विषय ही छपते थे तथा शैक्षिक पत्रकारिता का अनूठा रूप इस पत्र में मिलता है। इस प्रान्त की सरकार स्कूलों के लिये उक्त पत्र की कई सौ प्रतियां लेती थी। बीस वर्षों तक प्रकाशित होने के बाद सरकारी असहयोग के कारण 1896 ई॰ में पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया। इसके बारे में भारत जीवन का कहना है कि-यह पत्र अपने ढंग का एक ही था और इसमें जो विषय छपते थे, यथार्थ में विद्यार्थियों के लिये बड़े उपयोगी हुआ करते थे। ‘काशी पत्रिका’ के बाद 1880 में ‘काशी पंच’ नामक पत्र का प्रकाशन हुआ। सन् 1883 में दो पत्रों का प्रकाशन काशी से किया गया। प्रथम अम्बिका दत्त व्यास के सम्पादकत्व में ‘वैष्णव पत्रिका’ का प्रकाशन मान मन्दिर, काशी से हुआ। द्वितीय पत्र ‘काशी समाचार’ का सम्पादन बिहारी सिंह ने किया, जो लगभग 11 वर्षों तक चलकर बंद हो गया। इसकी प्रकाशन अनियमितता के सम्बन्ध में ‘भारत जीवन’ में टिप्पणी प्रकाशित हुयी।
भारत जीवन
सन् 1884 ई॰ में काशी से तीन पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ-पीयूष प्रवाह, भारत जीवन, धर्म प्रचारक। पीयूष प्रवाह, वैष्णव पत्रिका का ही परिवर्तित रूप था। भारत जीवन का प्रकाशन 3 मार्च को भारत जीवन प्रेस से रामकृष्ण वर्मा के सम्पादकत्व में हुआ। यह पत्र पूर्णतः राजनीतिक था। इसके पूर्व ऐसे पत्र का प्रकाशन काशी से नहीं हुआ था। यह अपने ढंग का पृथक पत्र था। प्रारम्भ में इसमें चार पृष्ठ होते थे, फिर यह छः पृष्ठों और विकसित होकर आठ पृष्ठों में प्रकाशित होने लगा। कभी-कभी यह पत्र 12 से 16 पृष्ठों तक का निकलता था। इसका मूल्य अग्रिम डाक महसूल सहित डेढ़ रुपया था। इसमें आधे से अधिक विज्ञापन होते थे, जो प्रारम्भिक तथा अंतिम पृष्ठों पर छपते थे। उन्नसवीं सदी में प्रकाशित होने वाले पत्रों में सर्वाधिक प्रसार संख्या 1500 ‘भारत जीवन’ की ही थी। काशी की हिन्दी पत्रकारिता में ‘भारत जीवन’ ने दीर्घकालीन सहयोग प्रदान किया। लगभग 42 साल की लम्बी अवधि तक प्रकाशित होने वाले इस पत्र ने हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिये काशी की ही नहीं, बल्कि हिन्दी प्रदेश की अगुवाई की है। इतना ही नहीं 1914 ई॰ में रामचन्द्र वर्मा के सम्पादन में इसी पत्र को काशी का प्रथम दैनिक होने का गौरव प्राप्त है। भारत जीवन से काशी में भाषा का परिवर्तित रूप देखने को मिलता है। इसकी भाषा पूर्णतया जनसाधारण की थी तथा खड़ी थी। कहना अप्रासंगिक न होगा कि ‘भारत जीवन’ से ही खड़ी बोली प्रारंभ हुई, जिसका रूप 1900 ई॰ में इलाहाबाद से महाबीर प्रसाद द्विवेदी के संपादकत्व में प्रकाशित सरस्वती में परिलक्षित होता है। इसी वर्ष प्रकाशित होने वाला ‘धर्म प्रचारक’ का सम्पादन श्री कृष्ण प्रसन्न सेन ने किया। यह धर्मामृत प्रेस से प्रकाशित हुआ था। दूसरे वर्ष राधाकृष्ण दास इसके सम्पादक हुए। यह केवल धर्म प्रचारार्थ प्रकाशित किया गया था। धर्म प्रचारक और नवोदित चन्द्रिका ही काशी से प्रकाशित होने वाली भारतेन्दु युग की अंतिम पत्रिका थी।
भारतेन्दु के बाद काशी की हिन्दी पत्रकारिता
यद्यपि भारतेन्दु के समय में ही ‘केसरी’ और ‘मराठा’ को लेकर पत्रकारिता और राजनीति के क्षेत्र में तिलक का प्रवेश हो गया था, तथापि भारतेन्दु जी द्वारा स्थापित भाषा, जाति, धर्म और राजनीति के क्षेत्र में पत्रकारिता की अविच्छिन्न परम्परा उनके मरणोपरान्त भी गतिमान रही। सन् 1888 में सुयोग्य लेखक एवं सम्पादक दामोदर विष्णु सप्रे ने ‘मित्र’ का प्रकाशन किया। 1894 ई॰ तक प्रकाशित इस पत्र का वार्षिक मूल्य डेढ़ रूपये था। इसके बाद 1889 ई॰ में कुलयशस्वी शास्त्री के सम्पादन में
‘धर्मसुधावर्षण’ प्रकाशित हुआ। इसका मूल्य 1/- रुपये वार्षिक था। 1890 ई॰ में ‘ब्रह्मावर्त’ तथा ‘वेद प्रचारक’ का प्रकाशन कृपारामजी ने किया। कृपाराम जी ने इसी समय ‘तिमिरनाशक’ का भी प्रकाशन तिमिरनाशक प्रेस वाराणसी से प्रारम्भ किया था। इसी वर्ष भूतनाथ मुखर्जी ने ‘आर्यमित्र’ निकाला। यह सनातन धर्म का पोषक था, जो लगभग 43 वर्षों तक प्रकाशित होता रहा।
19 वी सदी के अंतिम दशक के प्रारम्भिक वर्ष 1891 में दो पत्रों ‘नौका जगहित’ और ‘राम जनमित्र’ का प्रकाशन काशी से किया गया। प्रथम गौड़ प्रेस से वंशीधर तथा दूसरे को दर्शन प्रेस से गणपत राव निकालते थे। उपरोक्त दोनों पत्र जाति विशेष के कल्याणार्थ निकाले गये थे। ‘राम जनमित्र’ वेश्याओं और उनके बच्चों के कल्याणार्थ प्रकाशित किया गया था। तत्कालीन समय में ऐसी सामयिक सोच शायद पूरे भारत में अनूठी थी। सन् 1892 ई॰ में काशी से तीन पत्रों ‘व्यापार हितैषी’, ‘ब्राह्मण हितकारी’, तथा ‘सरस्वती प्रकाश’ का प्रकाशन हुआ। ‘व्यापार हितैषी’ के सम्पादक हनुमान प्रसाद दीक्षित थे तथा इसका मूल्य डेढ़ रुपये वार्षिक था। ‘ब्राह्मण हितकारी’ का भी यही मूल्य था। इसे कृपाराम जी निकालते थे। ‘सरस्वती प्रकाश’ का सम्पादन बनवारी लाल ने किया था। इसका भी मूल्य डेढ़ रुपये वार्षिक था।
1894 ई॰ में ‘गोसेवक’ का प्रकाशन श्री जगत नारायण के सम्पादन में हुआ था। इसी वर्ष भारत प्रेस से ‘भारत भूषण’ का प्रकाशन रामप्यारी जी के सम्पादकत्व में तथा ‘साहित्य सुधा निधि’ अमीर सिंह के प्रबंधन मंे हरिप्रकाश प्रेस में छपने लगा। 1895 में दो पत्रों का प्रकाशन हुआ। ‘प्रश्नोत्तर’ ताज प्रिंटिंग प्रेस से भिखरी शरण निकालते थे और बाबू बटुक प्रसाद ने ‘कुसुमांजलि’ का प्रकाशन राजराजेश्वरी प्रेस से किया। सन् 1896 ई॰ में बाबू श्यामसुन्दर दास, महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी, श्री कालीदास और राधाकृष्ण दास जैसे सचेष्ट साहित्यिक पत्रकारों का अभ्युदय हुआ। इन मनीषियों के प्रयास ने काशी की पत्रकारिता को विवाद सीमा से अलग हटाकर नये मोड़ पर प्रतिष्ठापित किया। उक्त विद्वानों के संयुक्त प्रयास से हिन्दी भाषा एवं साहित्य के संवर्द्धन हेतु इसी वर्ष काशी नागरी प्रचारिणी सभा के तत्वावधान में त्रैमासिक ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। प्रारम्भ में इस पत्रिका का मूल्य डेढ़ रुपये था। लगभग दस वर्षों के प्रकाशनोपरान्त इस पत्रिका का स्वरूप श्यामसुन्दर दास, रामचन्द्र शुक्ल, रामचन्द्र वर्मा और वेणी प्रसाद के संपादन में मासिक हो गया। 1920 ई॰ में गौरी शंकर हीराचन्द ओझा, श्यामसुन्दर दास, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और मंुशी देवी प्रसाद के सम्पादन में इसे पुनः त्रैमासिक कर दिया गया। इस पत्रिका को प्रारंभ से लेकर वर्तमान तक युग निर्माता लेखकों व विचारकों का सहयोग प्राप्त होता रहा। जहां उन्नीसवीं शताब्दी में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना से हिन्दी भाषा-साहित्य अपनी चरमोत्कर्षता को प्राप्त हुआ, वहीं नागरी प्रचारिणी पत्रिका के प्रकाशनोपरांत काशी में साहित्यिक पत्रों की बाढ़ आ गयी।
बनारस अखबार से सुदर्शन तक
इस शताब्दी के अन्तिम वर्षों में किशोरीलाल गोस्वामी का ‘उपन्यास’, ‘उपन्यास माला’, चुन्नीलाल खत्री और देवकी नन्दन का उपन्यास ‘लहरी’ का प्रकाशन हुआ। इन तीनों पत्रिकाओं से कथा पत्रकारिता का प्रारम्भ हुआ। इन्हीं वर्षों के प्रकाशन क्रम में हरिकृष्णदास के सम्पादन में फ्रीमेन एण्ड कम्पनी से ‘भाषा चन्द्रिका’, राम भरोसे शर्मा चतुर्वेदी के सम्पादन में कविता सम्बन्धी ‘काव्य
सुधानिधि’ का प्रकाशन हुआ। इसी वर्ष ‘सुदर्शन’ का प्रकाशन लहरी प्रेस से माधव प्रसाद मिश्र के सम्पादकत्व में प्रारम्भ हुआ था। इसके प्रकाशक बाबू देवकी नन्दन खत्री थे। काशी की हिन्दी पत्रकारिता में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण हिन्दी पत्रकारिता में सुदर्शन का अलग इतिहास रहा है। विद्वत्जनों  ने ‘सरस्वती’ और ‘सुदर्शन’ से बीसवीं सदी की शुरूआत भी मानी है। वैसे उपरोक्त पत्रिका तथा पत्र का प्रकाशन उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के मेरुदण्ड पर हुआ था, इस कारण 1900 में ‘सरस्वती’ और ‘सुदर्शन’ के प्रकाशन से 20वीं सदी का प्रारम्भ तथा 19वीं सदी का अंत होता है। इसका उद्देश्य था हिन्दी भाषा और सनातन धर्म का प्रचार करना। इसके पूर्व हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में सनातन धर्म के प्रचारार्थ इतना महत्वपूर्ण पत्र कभी भी प्रकाशित नहीं हुआ था।
इस प्रकार काशी की हिन्दी पत्रकारिता ने उन्नीसवीं शताब्दी की अपनी यात्रा साढे़ चार दशकों में पूर्ण की। 1845 ई॰ में प्रकाशित प्रथम हिन्दी पत्र से लेकर अन्तिम चरण तक विविध विचारों, धारणाओं, मान्यताओं को साथ लेकर चलने वाली काशी की हिन्दी पत्रकारिता समय-समय पर अनेक परिवर्तनों का सामना करती रही। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का उदय हिन्दी भाषा साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रान्तिकारी घटना रही है। उपरोक्त प्राप्त ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर इतना तो स्पष्ट होता ही है कि इस शताब्दी में यद्यपि राजनीतिक पत्रों का अभाव था, किन्तु धर्म, जाति और साहित्य
सम्बन्धी पत्रों के स्वर का सीधा सम्बन्ध जन जागरण के साथ मुस्तैदी से स्थापित हो चुका था।
काशी साहित्यिक नगरी है। यहां से अनेक साहित्यिक पत्र निकले उनमें ‘तरंगिणी’ भी एक प्रमुख पत्र है। यह मासिक पत्रिका थी। पहली बार काशी से रंगीन पत्रिका का प्रकाशन हुआ। पंडित केदार शर्मा इसके साज-सज्जा और चित्रों को मूर्तरूप देते थे। इस पत्रिका के 12 अंक निकले। इसके सम्पादक पंडित बसंतराव व्यास थे। इस पत्रिका को काशी के तेजस्वी साहित्यकार पंडित ज्वालाराम नागर का वरदहस्त प्राप्त था। इसमें तत्कालीन सभी बड़े साहित्यकारों के लेख छपा करते थे। इस पत्रिका के 12 अंक निकलने के बाद इसका प्रकाशन बन्द हो गया।
छायावाद युग की बहुचर्चित कहानी प्रधान मासिक पत्र हंस था। इसके संचालक मुंशी प्रेमचन्द थे। उन्होंने बड़े उत्साह के साथ इसका प्रकाशन 1930 ई॰ में किया था। इस पत्रिका के ‘काशी अंक’, ‘द्विवेदी अभिनंदन अंक’, ‘आत्मकथा’, ‘अभिनंदन अंक’ उल्लेखनीय है। सन 1936 तक इसका सम्पादन प्रेमचंद ने किया। बाद में इसके अनेक सम्पादक हुए। 1943 के बाद यह पत्रिका बंद हो गयी। कुछ वर्षों बाद इस पत्रिका का पुनः प्रकाशन शुरू हुआ और बाद में यह पत्रिका राजेन्द्र यादव के सम्पादकत्व में प्रकाशित होती रही। 11 फरवरी 1932 में काशी से पाक्षिक जागरण का प्रकाशन हुआ। पर कुछ ही दिनों तक प्रकाशित होने के बाद जुलाई 1932 में यह पत्रिका बंद हो गयी। बाबू शिवपूजन सहाय इसके सम्पादक थे। इसे हम हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ पाक्षिक पत्रिका कह सकते हैं। इसमें जितनी अधिक मात्रा में पठनीय सामग्री होती थी, उतनी मात्रा में अन्य पत्रों में सामग्री नहीं होती थी। समकालीन सभी बड़े साहित्यकारों के लेख इसमें छपा करते थे।
काशी की हिन्दी पत्रकारिता में 1920 में दैनिक ‘आज’ के प्रकाशन से नया मोड आया। अभी तक काशी से जितने भी पत्र निकले, वे सभी साहित्यिक थे। पर ‘आज’ राजनीति प्रधान दैनिक पत्र था। राष्ट्ररत्न शिवप्रसाद गुप्त ने 5 सितम्बर 1920 में इसका प्रकाशन आरंभ किया था। इसके प्रथम संपादक श्री प्रकाश जी थे, पर वास्तविक सम्पादक बाबूराव विष्णु पराड़कर थे। श्री प्रकाश जी ने मात्र छः महीने तक आज की सेवा की। उसके बाद 1955 तक मुख्य रूप से पराड़कर जी ही इसके सम्पादक रहे। ‘आज’ कुछ सिद्धान्तों के साथ जनता के समक्ष आया। पहला यह राष्ट्रीय पत्र था। अंग्रेज सरकार का विरोधी पत्र था। 1920 से 1947 के मध्य स्वतंत्रता आन्दोलन की जो लड़ाई लड़ी गयी, ‘आज’ उसका चश्मदीद गवाह है।
दूसरा इसने हिन्दी भाषा को मानक स्वरूप दिया। हिन्दी के शास्त्रीय शब्दों का आज के
माध्यम से प्रचलन हुआ। शब्दों की वर्तनी निर्धारित की। हिन्दी भाषा भण्डार को नये शब्द दिये। जैसे श्रीयुत के लिए श्री, मुद्रास्फीति, राष्ट्रपति जैसे अनेक शब्द दिये। ‘आज’ राष्ट्रीय चेतना जगाने, जनता को युग के साथ चलने, उनकी समस्याओं को उजागर करने तथा जनता की छोटी से छोटी समस्याओं की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने में आगे रहा है। ‘आज’ को हिन्दी दैनिक पत्रों का पितामह कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा।
काशी से 1946 में दूसरा दैनिक पत्र ‘सम्मार्ग’ का प्रकाशन था। पण्डित गंगाशंकर मिश्र इसके सम्पादक थे। पंडित मिश्र वाराणसी के साथ ही दिल्ली, जयपुर व कलकत्ता  से प्रकाशित होने वाले सन्मार्ग के भी संपादक रहे। आपके सहयोग के लिए 1957 में वाराणसी से प्रकाशित सन्मार्ग में स्थानीय सम्पादक पद सृजित हुआ और श्री आनन्द बहादुर सिंह इस पद पर नियुक्त हुए। तबसे अग्रलेख लेखन का भार सम्भाले श्री सिंह के सम्पादकत्व में सन्मार्ग नियमित प्रकाशित हो रहा है। मुख्यतः यह धर्मसंघ का पत्र था। स्वामी कारपात्री जी की इस पर बड़ी कृपा थी। पचास के दशक में यह हिन्दी का महत्वपूर्ण हिन्दी दैनिक पत्र था।
सन् 1942 में राष्ट्रीय आन्दोलन के कारण देश में तोड़-फोड़ के चलते के सभी अखबारों के प्रकाशन बन्द हो गये। जब आन्दोलन शान्त हुआ तो दैनिक ‘संसार’ का प्रकाशन 1943 हुआ। पंडित बाबूराव विष्णु पराड़कर किसी कारण से नाराज होकर ‘आज’ छोड़ ‘संसार’ में चले गये थे। वे तीन वर्षों तक ‘संसार’ में रहे। पुनः अगस्त 1947 में ‘आज’ में आ गये। पंडित कमलापति जी आज के सम्पादक थे। वे कुछ दिनों तक सम्पादन कार्य करने के बाद राजनीति में चले गये। बाद में वंशदेव मिश्र इसका सम्पादन करते थे। यह दैनिक पत्र 54 में आर्थिक कारणों से बन्द हो गया। यह अखबार अपने समय का महत्वपूर्ण पत्र था। इसका साप्ताहिक अंक अलग छपता था।
काशी से डा॰ भगवानदास अरोड़ा के नेतृत्व में यह पत्र 1950 में प्रकाशित होने लगा। यह अखबार स्थानीय समाचारों तथा अपराध के समाचारों को प्रमुखता से छापता था। धीरे-धीरे यह अखबार हिन्दी के प्रमुख सान्ध्य दैनिक रूप में विकसित हुआ।
दैनिक शांतिमार्ग का भी प्रकाशन शुरू हुआ लेकिन कुछ दिनों में ही यह अखबार बन्द हो गया। दैनिक जनवार्ता आपातकाल के दौर में प्रमुख दैनिक के रूप में विकसित हुआ। इनके अतिरिक्त सांध्य दैनिक जनमुख, भारत दूत, काशीवार्ता, समाचार ज्योति जागरूक एक्सप्रेस, दैनिक संवाद एवं उर्दू दैनिक आवाज-ए-मुल्क और हालाते वतन का भी प्रकाशन यहां से होता है।
इन दिनों काशी से प्रातःकालीन समाचार पत्रों में ‘आज’ के अतिरिक्त दैनिक ‘जागरण’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘अमर उजाला’, ‘राष्ट्रीय सहारा’ प्रमुख रूप से प्रकाशित हो रहे हंै। काशी हिन्दी दैनिक अखबारों का महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया है।
का्याी के प्रमुख सम्पादक/पत्रकार
काशी की हिन्दी पत्रकारिता के विकास में काशी के पत्रकारों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। हिन्दी भाषा का मानक स्वरूप रखने, वर्तनी निर्धारित करने, समाचारों की प्रस्तुति, साहित्यिक लेखों तथा समाचारों के सम्पादन में सम्पादकों का योगदान रहा है। पचास के दशक में काशी हिन्दी सम्पादकों का बहुत बड़ा गढ़ था। ऐसे सम्पादकों की लम्बी सूची है। उस समय के प्रमुख पत्रकारों में सर्वश्री बाबूराव विष्णु पराड़कर, गंगाशंकर मिश्र, पंडित लक्ष्मण नारायण गर्दे, दिनेश दत्त झां, पण्डित कमलापति त्रिपाठी, रामकृष्णा रधुनाथ खाडिलकर, पाण्डेय बेचन शर्मा, विद्याभास्कर जी, श्यामा प्रसाद प्रदीप, चन्द्रकुमार, रामसुंदर सिंह, दीनानाथ गुप्त, ईश्वरचन्द्र सिनहा, शिवप्रसाद श्रीवास्तव, लक्ष्मीशंकर व्यास, दीनानाथ मिश्र, दूधनाथ सिंह, रामचन्द्र नरहर वापट, विश्वनाथ सिंह, ईश्वरदेव मिश्र, बलदेव प्रसाद मिश्र, कमला प्रसाद अवस्थी, शिवप्रसाद मिश्रा, चन्द्र कुमार जी, राजकुमार जी, पारसनाथ सिंह पारसनाथ जी को छोड़ सभी दिवंगत हैं।
भूमिगत पत्रकारिता
काशी ने हिन्दी पत्रकारिता को भूमिगत पत्रकारिता शुरू कर नया आयाम दिया। 11 मई 1930 को जब ‘आज’ अखबार के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा तो उसने अपने पाठकों को देश की हलचल जानने के लिए गोपनीय ढंग से ‘रणभेरी’ नामक चार पृष्ठों की पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया। इसके मुद्रण प्रकाशन और सम्पादक के बारे में कोई जानकारी किसी को नहीं होती थी। 11 मई 1930 से 26 अक्तूबर 1930 तक इस पत्रिका का सम्पादन ‘आज’ कार्यालय की ओर से होता रहा। इसमें सम्पादक का छद्म नाम छपता था। रणडंका, चण्डिका और चिनगारी जैसे भूमिगत पर्चे प्रकाशित होते रहे जिसमें अंग्रेज सरकार की धज्जियां उड़ायी जाती रही। यह भूमिगत पत्रकारिता 1942 तक चलती रही।
हास्य व्यंग्य परम्परा
काशी में हिन्दी पत्रकारिता की एक धारा हास्य-व्यंग्य की भी रही है। इस धारा मंे ‘तरंग’  (1935), ‘खुदा की राह पर’ (1938), ‘अजगर’ ‘करेला’ (1950) का भी प्रकाशन हुआ। ‘तरंग’ के प्रथम सम्पादक कृष्णदेव प्रसाद गौड़ थे। बाद में यह पत्र काशीनाथ उपाध्याय भ्रमर ने वर्षों तक सम्पादित किया। ‘खुदा की राह पर’ और ‘करेला’ का भी सम्पादन गौड़ जी ने किया था। पर बाद में ‘खुदा की राह पर’  का सम्पादन 1950 तक पुरूषोत्तम लाल दबे करते रहे। केदार शर्मा के व्यंग्य चित्रों से इन पत्रिकाओं की गरिमा और भी बढ़ जाती थी। जाने माने काटूनिस्ट मनोरंजन कांजिलाल की बात ही निराली थी। ‘आज’ अखबार में उनके कार्टून का अलग महत्व था।

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